दशा एवं गोचर का तुलनात्मक अध्ययन
By: Future Point | 02-Jan-2018
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Comparative Study of Dasha and Transit: जन्मपत्री (Janam Kundli) में किसी भी घटना की जानकारी के साथ उसके घटने के समय की भी जानकारी आवश्यक होती है। इसके लिए दशा एवं गोचर की दो पद्धतियां विशेष हैं।
दशा से घटना के समय एवं गोचर से उसके शुभाशुभ होने का ज्ञान प्राप्त होता है। दशा और गोचर दोनों ही ज्योतिष में जातक को मिलने वाले शुभाशुभ फल का समय और अवधि जानने में विशेष सहायक हैं। इसलिए ज्योतिष में इन्हें विशेष स्थान और महत्व दिया गया है।
शुभाशुभ फलकथन के लिए दोनों को बराबर का स्थान दिया गया है। दशा का फल गोचर के बिना अधूरा है और गोचर का फल दशा के बिना। दोनों को आपसी संबंध समझने के लिए सबसे पहले दशा को समझते हैं-
ज्योतिषशास्त्र में परिणाम की प्राप्ति होने का समय जानने के लिए जिन विधियों का प्रयोग किया जाता है उनमें से एक विधि है विंशोत्तरी दशा। विंशोत्तरी दशा का जनक महर्षि पाराशर को माना जाता है। पराशर मुनि द्वारा बनाई गयी विंशोत्तरी विधि चन्द्र नक्षत्र पर आधारित है।
इस विधि से की गई भविष्यवाणी कामोवेश सटीक मानी जाती है, इसलिए ज्योतिषशास्त्री वर्षों से इस विधि पर भरोसा करके फलकथन करते आ रहे हैं। विशोत्तरी दशा पद्धति ज्यादा लोकप्रिय एवं मान्य है।
विंशोत्तरी दशा के द्वारा हमें यह भी पता चल पाता है कि किसी ग्रह का एक व्यक्ति पर किस समय प्रभाव होगा। “महर्षि पराशर” को विंशोत्तरी दशा का पिता माना जाता है।
वैसे तो महर्षि ने 42 अलग-अलग दशा सिस्टम के बारे में बताया, लेकिन उन सब में यह सबसे अच्छी दशा प्रणाली में से एक है। दशा का मतलब होता है “समय की अवधि”, जिसे एक निश्चित ग्रह द्वारा शासित किया जाता है।
यह विधि चंद्रमा नक्षत्र पर आधारित है जिसकी वजह से इसकी भविष्यवाणी को सटीक माना जाता है। विंशोत्तरी दशा को "महादशा" के नाम से भी जाना जाता है। दशा अवधि को सरल शब्दों में घटनाक्रम का नाम दिया जा सकता है।
हम सभी के जीवन में एक के बाद एक घट्नाएं लगातार बदलती रहती है। किस के बाद कौन सी घटना घटित होगी इसका निर्धारण दशा क्रम के आधार पर होता है। जन्म कुंडली में बन रहे योगों के फल दशा काल में प्राप्त होते हैं।
प्रत्येक ग्रह अपने गुण-धर्म के अनुसार एक निश्चित अवधि तक जातक पर अपना विशेष प्रभाव बनाए रखता है जिसके अनुसार जातक को शुभाशुभ फल प्राप्त होता है।
ग्रह की इस अवधि को हमारे महर्षियों ने ग्रह की दशा का नाम दे कर फलित ज्योतिष में विशेष स्थान दिया है। फलित ज्योतिष में इसे दशा पद्धति भी कहते हैं।
भारतीय फलित ज्योतिष में 42 प्रकार की दशाएं एवं उनके फल वर्णित हैं, किंतु सर्वाधिक प्रचलित विंशोत्तरी दशा ही है। उसके बाद योगिनी दशा है। आजकल जैमिनी चर दशा भी कुछ ज्योतिषी प्रयोग करते देखे गये हैं।
विंशोतरी दशा महत्व
विंशोत्तरी दशा से फलकथन शत-प्रतिशत सही पाया गया है। महर्षियों और ज्योतिषियों का मानना है कि विंशोत्तरी दशा के अनुसार कहे गये फलकथन सही होते हैं। प्राचीन ग्रंथों में भी इस दशा की सर्वाधिक चर्चा की गई है। दशा चंद्रस्पष्ट पर आधारित है।
जन्म समय चंद्र जिस नक्षत्र में स्पष्ट होता है, उसी नक्षत्र के स्वामी की दशा जातक के जन्म समय रहती है। नक्षत्र का जितना मान शेष रहता है, उसी के अनुपात में दशा शेष रहती है। किसी भी ग्रह की पूर्ण दशा को महादशा कहते हैं। महादशा के आगामी विभाजन को अंतर्दशा कहते हैं।
यह विभाजन सभी ग्रहों की अवधि के अनुपात में रहता है। जो अनुपात महादशा की अवधि का है उसी अनुपात में किसी ग्रह की महादशा की अंतर्दशा होती है।
उदाहरण के लिए शुक्र की दशा 20 वर्ष की होती है जबकि सभी ग्रहों की महादशा की कुल अवधि 120 वर्ष होती है। इस प्रकार शुक्र को 120 वर्षों में 20 वर्ष प्राप्त हुए। इसी अनुपात से 20 वर्ष में शुक्र की अंतर्दशा को 3 वर्ष 4 मास 0 दिन प्राप्त होते हैं जो कि शुक्र की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा की अवधि हुई। इसी प्रकार शुक्र महादशा में सूर्य की अंतर्दशा 1 वर्ष, चंद्र की अंतर्दशा 1 वर्ष 8 मास 0 दिन की होगी।
अंतर्दशा का क्रम भी उसी क्रम में होता है जिस क्रम से महादशा चलती हैं अर्थात केतु, शुक्र, सूर्य, चंद्र, मंगल, राहु, गुरु, शनि, बुध। किसी भी ग्रह की महादशा में अंतर्दशा पहले उसी ग्रह की होगी जिसकी महादशा चलती है, अर्थात शुक्र की महादशा में पहले शुक्र की अंतर्दशा, सूर्य की महादशा में पहले सूर्य की अंतर्दशा आदि। उसके बाद अन्य ग्रहों की अंतर्दशा महादशा के अंत तक चलेगी।
प्रत्यंतर्दशा अंतर्दशा का आगामी विभाजन है जो इसी अनुपात में होता है जैसे अंतर्दशा का महादशा में विभाजन होता है। महादशा को अंतर्दशा में विभक्त करते हैं। अंतर्दशा को प्रत्यंतर दशा में प्रत्यंतर को सूक्ष्म दशा में, सूक्ष्म को प्राण दशा में विभक्त करते हैं। विभाजन का अनुपात वही रहता है जो महादशाओं का आपसी अनुपात है।
फलकथन की सूक्ष्मता में पहुंचने के लिए विभाजन विशेष लाभकारी है। अंतर्दशा अधिक से अधिक 3 वर्ष 4 माह तक का प्रभाव बताती है। प्रत्यंतर 6 महीनों तक, सूक्ष्म दशा और प्राण दशा दिनों, घंटों तक का फलकथन करने में लाभकारी होती हैं।
दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल नहीं देती। दशा में अंतर्दशा, प्रत्यंतर्दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशा और गोचर स्थिति के अनुसार फल में बदलाव आता रहता है। यदि सभी स्थितियां शुभ होंगी तो उस समय अतिउत्तम शुभ फल जातक को प्राप्त होगा।
यदि कुछ स्थिति शुभ और कुछ अशुभ रहेगी तो फल मिश्रित होगा। यदि ग्रह जातक के लिए शुभ है तो दशा की कुल अवधि में औसतन फल शुभ ही होगा। कुंडली में लग्नेश, केन्द्रेश, त्रिकोणेश की दशाएं शुभ फलदायी होती हैं, तृतीयेश, षष्ठेश, अष्टमेश एकादशेश, द्वादशेश की दशाएं अशुभ फलदायी होती हैं। तृतीय भाव और एकादश भाव में बैठे अशुभ ग्रह भी अपनी दशा में शुभ फल देते हैं। जो ग्रह केंद्र या त्रिकोण का स्वामी होकर 3, 6, 8, 11, 12 का स्वामी भी हो तो दशा का फल मिश्रित होता है।
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दशा फल करते समय कुंडली में आपसी संबंधों पर विशेष विचार करना चाहिए जैसे: 1। दो या अधिक ग्रहों का एक ही भाव में रहना। 2। दो या अधिक ग्रहों की एक दूसरे पर दृष्टि। 3। ग्रह की अपने स्वामित्व वाले भाव में बैठे ग्रह पर दृष्टि हो। 4। ग्रह जिस ग्रह की राशि में बैठा हो, उस ग्रह पर दृष्टि भी डाल रहा हो। 5। दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठे हों। 7। दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठे हों और उनमें से कोई एक दूसरे पर दृष्टि डाले। 8। दो ग्रह एक दूसरे के भाव में बैठकर एक दूसरे पर दृष्टि डाल रहे हों। दशाफल विचार में लग्नेश से पंचमेश, पंचमेश से नवमेश बली होता है एवं तृतीयेश से षष्ठेश और षष्ठेश से एकादशेश बली होता है।
इसके अतिरिक्त शुभ ग्रह गुरु, शुक्र, बुध, पूर्ण चंद्र केंद्रेश हों तो शुभ फल नहीं देते, जब तक उनका किसी शुभ ग्रह से संबंध न हो। ऐसे ही पाप ग्रह क्षीण चंद्र, पापयुत बुध तथा सूर्य, शनि, मंगल केन्द्रेश हों तो पाप फल नहीं देते, जब तक कि उनका किसी पाप ग्रह से संबंध न हो।
यदि पाप ग्रह केन्द्रेश के अतिरिक्त त्रिकोणेश भी हो तो उसमें शुभत्व आ जाता है। यदि पाप ग्रह केंद्रेश होकर 3, 6, 11 वें भाव का भी स्वामी हो तो अशुभत्व बढ़ता है। चतुर्थेश से सप्तमेश और सप्तमेश से दशमेश बली होता है।
महादशा में अंर्तदशा, अंतर्दशा में प्रत्यंतर दशा आदि का विचार करते समय दशाओं के स्वामियों के परस्पर संबंधों पर ध्यान देना चाहिए। यदि परस्पर घनिष्टता है और किसी भी तरह से संबंधों में वैमनस्य नहीं है तो दशा का फल अति शुभ होगा।
यदि कहीं मित्रता और कहीं शत्रुता है तो फल मिश्रित होता है। जैसे- गुरु और शुक्र आपस में नैसर्गिक शत्रु हैं लेकिन दोनो ही ग्रह नैसर्गिक शुभ भी हैं। दशाफल का विचार करते समय कुंडली में दोनों ग्रहों का आपसी संबंध देखना चाहिए। पंचधा मैत्री चक्र में यदि दोनों में समता आ जाती है तो फल शुभ होगा।
इसके विपरीत यदि गुरु मंगल, राहु, गुरु, शनि, बुध। किसी भी ग्रह की महादशा में अंतर्दशा पहले उसी ग्रह की होगी जिसकी महादशा चलती है, अर्थात शुक्र की महादशा में पहले शुक्र की अंतर्दशा, सूर्य की महादशा में पहले सूर्य की अंतर्दशा आदि। उसके बाद अन्य ग्रहों की अंतर्दशा महादशा के अंत तक चलेगी।
प्रत्यंतर्दशा अंतर्दशा का आगामी विभाजन है जो इसी अनुपात में होता है जैसे अंतर्दशा का महादशा में विभाजन होता है। महादशा को अंतर्दशा में विभक्त करते हैं। अंतर्दशा को प्रत्यंतर दशा में प्रत्यंतर को सूक्ष्म दशा में, सूक्ष्म को प्राण दशा में विभक्त करते हैं।
विभाजन का अनुपात वही रहता है जो महादशाओं का आपसी अनुपात है। फलकथन की सूक्ष्मता में पहुंचने के लिए विभाजन विशेष लाभकारी है। अंतर्दशा अधिक से अधिक 3 वर्ष 4 माह तक का प्रभाव बताती है। प्रत्यंतर 6 महीनों तक, सूक्ष्म दशा और प्राण दशा दिनों, घंटों तक का फलकथन करने में लाभकारी होती हैं।
दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल नहीं देती। दशा में अंतर्दशा, प्रत्यंतर्दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशा और गोचर स्थिति के अनुसार फल में बदलाव आता रहता है। यदि सभी स्थितियां शुभ होंगी तो उस समय अतिउत्तम शुभ फल जातक को प्राप्त होगा।
यदि कुछ स्थिति शुभ और कुछ अशुभ रहेगी तो फल मिश्रित होगा। यदि ग्रह जातक के लिए शुभ है तो दशा की कुल अवधि में औसतन फल शुभ ही होगा। कुंडली में लग्नेश, केन्द्रेश, त्रिकोणेश की दशाएं शुभ फलदायी होती हैं, तृतीयेश, षष्ठेश, अष्टमेश एकादशेश, द्वादशेश की दशाएं अशुभ फलदायी होती हैं।
तृतीय भाव और एकादश भाव में बैठे अशुभ ग्रह भी अपनी दशा में शुभ फल देते हैं। जो ग्रह केंद्र या त्रिकोण का स्वामी होकर 3, 6, 8, 11, 12 का स्वामी भी हो तो दशा का फल मिश्रित होता है।
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फलादेश में गोचर का महत्व
जन्म समय के बाद ग्रह जिस-जिस राशि में भ्रमण करते रहते हैं वह स्थिति गोचर कहलाती है। गो शब्द संस्कृत भाषा की ''गम्'' धातु से बना है। गम् का अर्थ है 'चलने वाला' आकाश में अनेक तारे है। वे सब स्थिर हैं। तारों से ग्रहों को पृथक दिखलाने के कारण ग्रहों को गो नाम रखा गया है।
चर का अर्थ है 'चलना' अर्थात् अस्थिर बदलने वाला इसलिये गोचर का अर्थ हुआ ग्रहों का चलन अर्थात ग्रहों का परिवर्तित प्रभाव।जन्म कुण्डली में ग्रहों का एक स्थिर प्रभाव है और गोचर में ग्रहों का उस समय से परिवर्तित बदला हुआ प्रभाव दिखलाई पड़ता है।
फल कथन (फलित) के सटीक होने में गोचर की भूमिका अत्यंत ही महत्वपुर्ण हो जाति है। गोचर का महत्त्व प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक बना हुआ है। ग्रहों की गति हमेशा ही बनी रही है।
ज्योतिष में शोधपरक कार्यों में गोचर का बहुत महत्त्व होता है क्योंकि बड़े ग्रहों (जैसे शनि, गुरु, राहु, केतु) का पुनः उसी स्थान से भ्रमण होना प्रायः घटना की पुनरावृत्ति का संकेत होता है। मात्र गोचर के माध्यम से ही एक ज्योतिषी जातक का दैनिक, मासिक या वार्षिक भविष्य कथन कर सकता है। गोचर की गणना चन्द्र राशि के आधार पर की जाती है।
यदि चंद्रमा बली नहीं है अर्थात अंशों में कम या अमावस्या का है तो इस स्थिति में लग्न से ग्रहों का भ्रमण अधिक सटीक प्रभावशाली मानते हुए गोचर का भविष्य फल कथन करना उपयुक्त रहता है तथा फलित भी अधिक सटीक होता है।
यदि किसी जातक की कुंडली में महादशा और अन्तद्रशा दोनों ही योगकारक ग्रह की चल रही है तथा उस जातक का गोचर भी उच्छा हो तो वह उस जातक का गोचर भी अच्चा हो तो वह उस जातक के जीवन का सर्वश्रेष्ट समय होता है।
इस समय का यदि जातक सदुपयोग करे तो उसे हर कार्य में सफलता मिलती है। मेहनत का शुभ परिणाम शीघ्र ही प्राप्त होती है। जातक सफलता की उन ऊँचाइयों को छूता है जिसकी कल्पना वह स्वयं नही कर सकता। इस प्रकार की स्थिति बहुत ही अल्प देखने में आयी है। यह स्थिति प्रारब्ध की देन है।
ठीक इसके विपरीत यदि किसी जातक की कुंडली में महादशा और अंतर्दशा दोनों ही जातक के लिए हक में नहीं हैं तब इस स्थिति में हमनें देखा है कि जातक के लिए गोचर का महत्त्व बहुत अधिक बढ जाता है।
दशा और गोचर दोनों में श्रेष्ठ कौन हैं?
दशा और गोचर दोनों का महत्व समझने के बाद आईये समझते है कि दोनों के दोष क्या हैं?
विंशोतरी दशा की प्रशंसा लगभग सभी ज्योतिष शास्त्रों में की गई है। फिर भी इस विशोंतरी दशा की कुछ कमियां सामने आती हैं। जैसे:
सामान्यत: प्रयोग करने पर विशोंतरी दशा में निम्न दोष या कमियां सामने आती हैं।
- विशोंतरी दशा चंद्र स्पष्ट पर आधारित दशा
- विंशोतरी दशा की भुक्त और भोग्य दशा का निर्धारण चंद्र स्पष्ट से निकाला जाता है। इसमें जरा भी गलती या त्रुटि होने पर एक बड़ा अंतर आने की संभावनाएं रहती हैं। जबकि गोचर से फलादेश करने के लिए मात्र लग्न या चंद्र राशि और अन्य ग्रहों की स्थिति की जानकारी होना ही काफी है। जन्म समय में कुछ मिनटों का अंतर होने पर भी कई बार दशा में अंतर आने से फलादेश में सटिकता नहीं आ पाती है। इसके विपरीत गोचर के ग्रहों में चंद्र तीव्र गति ग्रह हैं। वह सवा दो दिन के लगभग राशि बदलता है। इसलिए गोचर का प्रयोग कर किया गया फलादेश सही रहता है।
- विशोंतरी दशाओं का क्रम और वर्ष संख्या किस आधार पर ली गई है। इसका कोई शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध नहीं मिलता है।
- अनेकों अनेक ज्योतिष शास्त्र विभिन्न दशाओं का वर्णन करते हैं। विंशोतरी दशा भी इनमें से एक है। ग्रहों का क्रम सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि है। जबकि विशोंतरी महादशा क्रम केतु, शुक्र, सूर्य।
- अनेक दशा पद्वतियां है। इनमें से कौन सी दशा उपयुक्त रहेगी, यह कहा नहीं जा सकता।