पितृपक्ष, श्राद्ध तर्पण विधि और पिंडदान का महत्व

By: Future Point | 16-Sep-2021
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पितृपक्ष, श्राद्ध तर्पण विधि और पिंडदान का महत्व

नवरात्र को जैसे देवी पक्ष कहा जाता है उसी प्रकार आश्विन कृष्ण पक्ष से अमावस्या तक को पितृपक्ष कहा जाता है। हिंदू धर्म में पितृ पक्ष का बहुत अधिक महत्व होता है। पितृ पक्ष को श्राद्ध पक्ष के नाम से भी जाना जाता है।

पितृ अर्थात हमारे पूर्वज, जो अब हमारे बीच में नहीं हैं, उनके प्रति सम्मान का समय होता है पितृपक्ष अर्थात महालय। अपने पूर्वजों को समर्पित यह विशेष समय आश्विन मास के कृष्ण पक्ष से प्रारंभ होकर अमावस्या तक के 16 दिनों की अवधि पितृ पक्ष अर्थात श्राद्ध पक्ष कहलाती है। पितृ पक्ष के दौरान पितर संबंधित कार्य करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

पुराणों के अनुसार पितृ पक्ष के दौरान परलोक गए पूर्वजों को पृथ्वी पर अपने परिवार के लोगों से मिलने का अवसर मिलता और वह पिंडदान, अन्न एवं जल ग्रहण करने की इच्छा से अपनी संतानों के पास रहते हैं। इन दिनों मिले अन्न, जल से पितरों को बल मिलता है और इसी से वह परलोक के अपने सफर को तय कर पाते हैं। इन्हीं अन्न जल की शक्ति से वह अपने परिवार के सदस्यों का कल्याण कर पाते हैं।

पितृ पक्ष आरंभ और समापन तिथि -

इस साल 20 सितंबर 2021 से पितृ पक्ष आरंभ हो जाएगा और 6 सितंबर 2021 को पितृ पक्ष का समापन होगा। पितृ पक्ष में मृत्यु की तिथि के अनुसार श्राद्ध किया जाता है। अगर किसी मृत व्यक्ति की तिथि ज्ञात न हो तो ऐसी स्थिति में अमावस्या तिथि पर श्राद्ध किया जाता है। इस दिन सर्वपितृ श्राद्ध योग माना जाता है।

पितृ पक्ष में श्राद्ध की तिथियां-

पूर्णिमा श्राद्ध - 20 सितंबर 2021- 

प्रतिपदा श्राद्ध - 21 सितंबर 2021

द्वितीया श्राद्ध - 22 सितंबर 2021

तृतीया श्राद्ध - 23 सितंबर 2021

चतुर्थी श्राद्ध - 24 सितंबर 2021,

पंचमी श्राद्ध - 25 सितंबर 2021

षष्ठी श्राद्ध - 27 सितंबर 2021

सप्तमी श्राद्ध - 28 सितंबर 2021

अष्टमी श्राद्ध- 29 सितंबर 2021

नवमी श्राद्ध - 30 सितंबर 2021 

दशमी श्राद्ध - 1 अक्तूबर 2021

एकादशी श्राद्ध - 2 अक्तूबर 2021

द्वादशी श्राद्ध- 3 अक्तूबर 2021

त्रयोदशी श्राद्ध - 4 अक्तूबर 2021

चतुर्दशी श्राद्ध- 5 अक्तूबर 2021

अमावस्या श्राद्ध- 6 अक्तूबर 2021

ज्योतिष के अनुसार पितृ पक्ष -

वैदिक ज्योतिष के अनुसार जब सूर्य का प्रवेश कन्या राशि में होता है तो, उसी दौरान पितृ पक्ष मनाया जाता है। पांचवां भाव हमारे पूर्व जन्म के कर्मों के बारे में बताता है और काल पुरुष की कुंडली में पंचम भाव का स्वामी सूर्य माना जाता है इसलिए सूर्य को हमारे कुल का द्योतक भी माना गया है।

कन्यागते सवितरि पितरौ यान्ति वै सुतान,

अमावस्या दिने प्राप्ते गृहद्वारं समाश्रिता:

श्रद्धाभावे स्वभवनं शापं दत्वा ब्रजन्ति ते॥

जब सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है तो सभी पितृ एक साथ मिलकर अपने पुत्र और पौत्रों (पोतों) यानि कि अपने वंशजों के द्वार पर पहुंच जाते हैं। इसी दौरान पितृपक्ष के समय आने वाली आश्विन अमावस्या को यदि उनका श्राद्ध नहीं किया जाता तो वह कुपित होकर अपने वंशजों को श्राप देकर वापस लौट जाते हैं। यही वजह है कि उन्हें फूल, फल और जल आदि के मिश्रण से तर्पण देना चाहिए तथा अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार उनकी प्रशंसा और तृप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए।

जिन लोगों के वंश में हमने जन्म लिया वे हमारे पूर्वज हैं इसलिए श्रद्धा पूर्वक उनके लिए अन्न आदि का दान करना हमारा कर्तव्य भी है और इसी के कारण हम उन्हें एक प्रकार से धन्यवाद भी देते हैं। लेकिन जो लोग अपने पितरों का विधि पूर्वक श्राद्ध कर्म नहीं करते और उनकी पूजा-अर्चना नहीं करते, उनकी कुंडली में पितृ दोष का निर्माण होता है और उसके द्वारा व्यक्ति को जीवन पर्यंत अनेक प्रकार के कष्टों को भोगना पड़ता है।

पितृ पक्ष में श्राद्ध करने का महत्व -

सनातन धर्म में व्यक्ति के कर्म और उसके पुनर्जन्म का विशेष संबंध देखा जाता है। यही वजह है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत उसका श्राद्ध कर्म करना अत्यंत आवश्यक माना गया है। ऐसी मान्यता है कि यदि किसी व्यक्ति के द्वारा उसके पूर्वजों का पूरे विधि-विधान से श्राद्ध अथवा तर्पण ना किया जाए तो उस जीव की आत्मा को मुक्ति प्राप्त नहीं होती और वह इस संसार में ही रह जाती है और अपने वंशजों से बार-बार यह उम्मीद रहती है कि वह उसके मुक्ति के मार्ग को खोलने के लिए श्राद्ध कर्म करें। जौ और चावल में मेधा की प्रचुरता होने के कारण और ये दोनों ही सोम से संबंधित होने के कारण पितृ पक्ष में यदि इन्ही से पिंडदान किया जाए तो पित्र तृप्त हो जाते हैं।

''श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌''अर्थात जो पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जाये, वही श्राद्ध है। पितृ पक्ष के दौरान जब किसी जातक द्वारा अपने पूर्वजों के निमित्त तर्पण आदि किया जाता है उसके कारण वह पितृ स्वयं ही प्रेरित होकर आगे बढ़ता है। जब पिंडदान होता है तो उस दौरान परिवार के सदस्य जो या चावल का पिंडदान करते हैं इसी में रेतस का अंश माना जाता है और पिंडदान के बाद वह पितृ उस अंश के साथ सोम अर्थात चंद्र लोक में पहुंच कर अपना अम्भप्राण का ऋण चुकता कर देता है।

''अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।

 पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥''

भगवद्गीता के अनुसार- भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे धनंजय; संसार के विभिन्न नागों में मैं शेषनाग और जलचरों में वरुण हूं, पितरों में अर्यमा तथा नियमन करने वालों में यमराज हूं। इस प्रकार अर्यमा को भगवान श्री कृष्ण द्वारा महिमामंडित किया गया है। आइए जानते हैं, अर्यमा का पितृपक्ष अथवा पितरों से क्या संबंध है। अर्यमा ही सभी पितरों के देव माने जाते हैं। इसलिए अर्यमा को प्रणाम। हे पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें। इसलिए वैशाख मास के दौरान सूर्य देव को अर्यमा भी कहा जाता है।

क्या होता है पिंडदान?

श्राद्धपक्ष के दौरान विशेष रूप से पित्र पृथ्वी पर उपस्थित होते हैं। उनकी यही अभिलाषा होती है कि उनके वंशज उनकी सद्गति के लिए उनके निमित्त पिंडदान करें अथवा उनका श्राद्ध कर्म करें। यही श्राद्ध कहलाता है। जब तक व्यक्ति का दसगात्र तथा षोडशी पिंडदान नहीं किया जाता वह प्रेत रूप में रहता है और सपिण्डन अर्थात पिंडदान के उपरांत ही वह पितरों की श्रेणी में शामिल हो जाता है। यही मुख्य वजह है कि किसी भी मृत व्यक्ति का पिंडदान किया जाता है।

एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्।

  यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।

जो व्यक्ति अपने पितरों को तिल मिश्रित जल की तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके द्वारा उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के सभी पापों का नाश अर्थात अंत हो जाता है। पितरों को तृप्ति प्रदान करने के उद्देश्य से विभिन्न देवताओं ऋषियों तथा पितृदेवों को तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया ही तर्पण कहलाती है। संक्षेप में तर्पण करना ही पिंड दान करना है लेकिन इसका स्वरूप थोड़ा भिन्न होता है जिसमें पिंड बनाकर उसका दान किया जाता है। सामान्यतया पिंडदान करने के बाद श्राद्ध कर्म करने की आवश्यकता नहीं रहती। लेकिन जब तक पिंडदान ना किया जाए तब तक श्राद्ध कर्म आवश्यक रूप से करना चाहिए।

पितृपक्ष का महत्व केवल उत्तर भारत ही नहीं बल्कि उत्तर पूर्व भारत में भी अत्यधिक है। इसे केरल राज्य में करिकडा वावुबली, तमिलनाडु में आदि अमावसाई और महाराष्ट्र राज्य में पितृ पंधरवडा के नाम से जाना जाता है। सभी स्थानों के लोग इस कार्य को अत्यंत श्रद्धा भक्ति के साथ संपन्न करते हैं। इस पितृपक्ष के दौरान पितृ धरती पर आते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनके वंशज उनको सद्गति देने के लिए अपना दायित्व निभाएंगे और श्राद्ध तथा पिंड दान जैसे शुभ कार्य करेंगे और उन्हें भोजन तथा तृप्ति मिलेगी।

पितृपक्ष के दौरान सूर्यदेव कन्या राशि में विराजमान होते हैं, पितर इस दौरान अपने वंशजों का इंतजार करते हैं कि वे उनका श्राद्ध आदि कर्म कर सकें। लेकिन यदि तब तक भी वंशजों द्वारा श्राद्ध कर्म या पिंड दान ना किया जाए तो जैसे ही सूर्य देव का तुला राशि में गोचर होता है सभी पितृ निराश होकर अपूर्ण मन से अपने स्थान पर लौट आते हैं और अपने वंशजों को श्राप देते हैं जिसके कारण उनके वंशज धरती लोक पर अनेक प्रकार के कष्ट भोगते हैं। इसे किसी व्यक्ति की कुंडली में पितृदोष के रूप में भी देखा जा सकता है।

पितृपक्ष, श्राद्ध और पिंड दान से संबंधित कथा -

 जन्म लेने के साथ ही व्यक्ति पर तीन प्रकार के ऋण उपस्थित होते हैं। देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। प्रत्येक व्यक्ति पितृपक्ष के दौरान इन तीनों ही ऋणों से मुक्त हो सकता है। इन्हीं ऋणों के संदर्भ में महाभारत काल में वीरकर्ण की एक कहानी काफी प्रचलित है।

महाभारत के युद्ध में कर्ण को वीरगति प्राप्त हुई तो उनकी आत्मा चित्रगुप्त से मोक्ष प्राप्ति की कामना करने लगी जिन्होंने मोक्ष देने से मना कर दिया। तो कर्ण ने पूछा कि मैंने तो अपना समस्त जीवन पुण्य कर्मों में ही समर्पित किया है और सदैव दान दिया है तो अब मुझ पर कौन सा ऋण बाकी है जिसकी वजह से मुझे मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती, इस पर चित्रगुप्त ने कहा कि निसंदेह आपने अनेक सत्कर्म किए हैं और उसी वजह से आपने अपने जीवन में आने वाले दो ऋण देव ऋण और ऋषि ऋण चुका दिया है लेकिन आपके ऊपर अभी तक पितृऋण चुकाना बाकी है। इसलिए जब तक आप इस ऋण को नहीं चुका देते, तब तक आपको मोक्ष नहीं मिल सकता।

इसके पश्चात् अपने पितृ ऋण को चुकाने के लिए कर्ण को धर्मराज ने यह अवसर दिया कि आप पितृपक्ष के दौरान 16 दिन के लिए पूरी पृथ्वी पर जाकर अपने ज्ञात और अज्ञात सभी पितरों के तर्पण और श्राद्ध कर्म को कीजिए, तदुपरांत विधिवत पिंड दान करके पुनः लौट कर आइए तभी आप को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। इसके बाद कर्ण पृथ्वी पर पुनः लौटे और समस्त कार्य विधि पूर्वक संपन्न कर मोक्ष के भागी बने। इससे ज्ञात होता है कि पितृ ऋण हमारे जीवन में कितना महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली है।

पितृ पक्ष अमावस्या / पितृ विसर्जनी अमावस्या -

पितृ पक्ष के दौरान पड़ने वाली अमावस्या को महालय अमावस्या भी कहा जाता है। सूर्य की सबसे महत्वपूर्ण किरणों में अमा नाम की एक किरण है उसी के तेज से सूर्य देव समस्त लोकों को प्रकाशित करते हैं। उसी अमामी विशेष तिथि को चंद्र का भ्रमण जब होता है तब उसी किरण के माध्यम से पितर देव अपने लोक से नीचे उतर कर धरती पर आते हैं। यही कारण है कि श्राद्ध पक्ष की अमावस्या अर्थात पितृ पक्ष की अमावस्या बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस दिन समस्त पितरों के निमित्त दान, पुण्य आदि करने से सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है और पितृ गण भी प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद देते हैं। यदि इसी अमावस्या तिथि के साथ संक्रांति काल हो, या व्यतिपात अथवा गजछाया योग हो, या फिर मन्वादि तिथि हो, या सूर्य ग्रहण अथवा चंद्र ग्रहण हो तो इस दौरान श्राद्ध कर्म करना अत्यंत फलदायी होता है।


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