Meru Trayodashi 2020: तप करने के लिए वर्ष का सबसे बड़ा दिन

By: Future Point | 17-Jan-2020
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Meru Trayodashi 2020: तप करने के लिए वर्ष का सबसे बड़ा दिन

जैन धर्म में कहा गया है…
जो लोग सच्चे होते हैं, वे सब सुख़द बना देते हैं
वे झूठ और निर्जीव को भी सजा और संवार सकते हैं
यदि इत्र की इक बूंद कागज़ के फूलों पर गिरती है
तो इनसान उसे ख़ुशबू से सुंदर बना सकता है...

इस काव्यांश का अर्थ है कि जीवन में बहुत अधिक कृत्रिमता है, चारों तरफ़ झूठ है, मक्कारी है लेकिन अगर अध्यात्म में जाकर देखें तो हर चीज़ को ख़ूबसूरत बनाया जा सकता है। सभी धार्मिक त्योहार हमें यही बताते हैं। वे हमें सच्चे मार्ग पर चलना और जीने का सलीका सिखाते हैं। ज़िंदगी में खुशबू और मिठास पैदा करते हैं।

जैन त्योहारों की यह ख़ासियत है कि वह हमें अनुशासित होना और संतोष करना सिखाते हैं। हमें भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर ले जाते हैं। इसके लिए जीवन में कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। मेरू त्रयोदशी (Meru Trayodashi) जैन धर्म का एक ऐसा ही त्योहार है। जानिए इस त्योहार के बारे में विस्तार से...

क्या है मेरू त्रयोदशी?

मेरू त्रयोदशी जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण त्योहार है जो कि प्रत्येक वर्ष माघ महीने में मनाया जाता है। हालांकि जैन परंपरा के अनुसार इसकी कोई तय तिथि नहीं है। इस दिन को जैन धर्म के पहले तीर्थंककर ऋषभदेव के महत्वपूर्ण दिन के रूप में मनाया जाता है। माना जाता है कि इस दिन भगवान ऋषभदेव को निर्वाण प्राप्त हुआ था। जैन धर्म में ऋषभदेव पहले ऐसे तीर्थंकर हुए जिन्होंने न केवल खुद निर्वाण प्राप्त किया बल्कि अपने बाद उन अन्य लोगों की भी सहायता की जो निर्वाण प्राप्त करना चाहते थे। उनके शिष्यों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया और इस तरह उनके माध्यम से ही जैन धर्म को अपने 24 तीर्थंकर मिले।

कब है मेरू त्रयोदशी?

जैन कैलेंडर के अनुसार मेरू त्रयोदशी पौष माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है। जिस तरह जैन धर्म के अधिकतर पर्व जैन तीर्थंकरों से संबंधित हैं उसी प्रकार मेरू त्रयोदशी भी जैन तीर्थंकर ऋषभदेव या ऋषभनाथ के अष्टपद पर्वत पर निर्वाण प्राप्त करने की खुशी में मनाया जाता है। इस बार मेरू त्रयोदशी बुधवार, जनवरी माह की 22 तारीख को है। क्योंकि विभिन्न कैलेंडर में तिथियों का निर्धारण अलग-अलग प्रकार से होता है इसलिए मेरू त्रयोदशी की तिथि हर वर्ष अलग-अलग हो सकती है।

क्यों मनाया जाता है यह पर्व?

मेरू त्रयोदशी का पर्व पिंगल कुमार (pingal kumar) की स्मृति में मनाया जाता है। माना जाता है कि पिंगल कुमार ने 5 मेरू का संपल्प पूरा किया था और 20 नवकार वाली के साथ ऊँ रहीम्, श्रीम् अदिनाथ पारंगत्या नम: मंत्र का जाप किया था। माना जाता है कि मेरू त्रयोदशी के दिन व्रत और तप करने से इनसान संयमी और अनुशासित बनता है।

मेरू त्रयोदशी का महत्व

जैन धर्मग्रंथों के अनुसार इस दिन व्रत, तप और जाप करने से मनुष्य को भौतिक सुख से परे आंतरिक सुख का आभास होता है। इसके लिए कुछ नियमों का पालन किया जाता है। माना जाता है कि इन नियमों का पालन कर मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है:

  • प्रत्येक वर्ष मेरू त्रयोदशी (Meru Trayodashi) के दिन 13 वर्ष 13 महीने के लिए व्रत रखा जाता है।
  • मोक्ष की प्राप्ति के लिए 5 मेरू का संकल्प पूरा करना ज़रूरी होता है।
  • 20 नवकारवली के साथ ऊँ रहीम्, श्रीम् अदिनाथ पारंगत्या नम: मंत्र का जाप करना होता है।

ऋषभदेव के निर्वाण कल्याणक का दिन है मेरू त्रयोदशी

मेरू त्रयोदशी भगवान ऋषभनाथ (ऋषभदेव) के निर्वाण कल्याणक का दिन है जिससे इस दिन का महत्व और अधिक बढ़ जाता है।जैन धर्म में निर्वाण का अर्थ बुझ या मर जाने से है। हमारी तृष्णा और वासनाओं का शांत हो जाना या मर जाना ही निर्वाण है। तृष्णा और वासना दु:ख के कारण हैं। इसलिए इनसे छुटकारा पाकर हम तमाम दु:खों से मुक्त हो जाते हैं। जैन धर्मग्रंथों में हमें इसका विस्तार से वर्णन मिलता है। जैन धर्म के निर्वाण कांड में हमें उन जगहों का उल्लेख मिलता है जहां इसके 24 तीर्थंकरों ने निर्वाण प्राप्त किया था। इसी में इसका उल्लेख किया गया है कि भगवान ऋषभनाथ ने अष्टपद पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया था:

अष्टापद आदीश्वर स्वामी, बासु पूज्य चंपापुरनामी।
नेमिनाथस्वामी गिरनार वंदो, भाव भगति उरधार ॥1॥

मेरू त्रयोदशी से जुड़ी परंपराएं

मेरी त्रयोदशी से जुड़ी महत्वपूर्ण परंपराएं और अनुष्ठान इस प्रकार हैं:

  • श्वेतांबरों के अनुसार इस जैन पर्व के साथ अनेक नियम जुड़े हैं। ये नियम जैन धर्म के अन्य नियमों, जैसे कि मंदिर जाकर ईश्वर की आराधना करना, गुरु के उपदेश सुनना, सतुतिगान और दान करना, से भिन्न हैं। इनका उद्देश्य स्वयं को जानना, स्वयं पर विजय प्राप्त करना है। अपनी लालसाओं पर विजय प्राप्त कर तमाम दु:खों से मुक्त होना है, अर्थात् निर्वाण प्राप्त करना है।
  • इस दिन सभी श्रद्धालु बिना कुछ खाए-पीए पूरे दिन निर्जला व्रत रखते हैं।
  • भगवान ऋषभनाथ या ऋषभदेव की प्रतिमा के सामने चांदी के बने 5 मेरू रखे जाते हैं। बीच में एक बडा मेरू और उसके चारो ओर 4 छोटे-छोटे मेरू रखे जाते हैं।
  • चारों मेरू के सामने श्रद्धालु स्वस्तिक का निशान बनाते हैं। हिंदू धर्म की बजाए जैन धर्म में स्वस्तिक का अधिक महत्व है। जैन धर्म के सभी ग्रंथों और मंदिरों पर स्वस्तिक का निशान होता है।
  • उसके बाद श्रद्धालु धूप-दीप जलाकर ऋषभदेव की पूजा करते हैं।
  • इसके बाद श्रद्धालु इस मंत्र का 2000 बार जाप करते हैं:
  • ऊँ ह्रीम श्रीम् ऋषभदेव परमगत्या नम:

    अर्थात् ऋषभदेव को प्रणाम करता हूं जिन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।

  • किसी मठवासी और मठवासिनी को दान देने के बाद ही यह व्रत खोला जाता है। इस तरह यह व्रत पूरा होता है।

मेरू त्रयोदशी महज़ एक व्रत या त्योहार न होकर एक तप है। इस तप को पूरा कर आप अपने पापों का प्रायश्चित करते हैं और निर्वाण प्राप्त करते हैं। निर्वाण प्राप्त करने के लिए प्रत्येक माह की कृष्ण त्रयोदशी को 13 वर्ष 13 महीने के लिए यह व्रत रखा जाता है। हर श्रद्धालु अपनी क्षमता और मान्यता के अनुसार यह व्रत रखता है। कई दफा यह तप पूरा होता है और कई दफा नहीं। हो सकता है श्रद्धालु हर वर्ष यह व्रत न रख सके या 5 मेरू का संकल्प पूरा न कर पाए। लेकिन जितना संभव हो सके इसके नियमों का पालन करें। सच्चे मन से यह व्रत रखें। तभी आपको इसके शुभ फल मिलेंगे।


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